Wednesday, November 18, 2020

प्यार

एक मासूम सा एहसास
एक नज़ुक सा स्पर्श
कुछ बेमाने से शब्द
कुछ सुरीला, कुछ बेसुरा सा संगीत
कुछ ऐसी होती है प्यार से पहली मुलाकात
कभी मीठी रोटी की मिठास 
कभी दूध में हलदी के साथ
आसुओं और चिन्ता में घिरा
हर पल दुआ में लिपटा, गर्व से भरा होता है प्यार

फिर एक दिन हम बड़े हो जाते हैं
प्यार हर किसी से एक सा नहीं होता ये जान जाते हैं
इसके अलग अलग रुप, नए एहसास जगाते हैं
लोगों से ही नहीं चीजों से भी जुड़ जाते हैं
अपना मैं आईने में साफ देख पाते हैं,
खुद के प्यार में हम इतना डूब जाते हैं,
फिर कुछ पल यूं ही बीत जाते हैं।

ज़िन्दगी एक नया मोड़ लेती है
प्यार के नए अंदाज़ उस मोड़ पर खड़े पाए जाते हैं, 
हवाएं चलती हैं, जुलफें उड़ती हैं, 
आखें मिलती हैं, चहरे की मुसकान दिल के तार छेड़ जाती है
मौसम सुहाना लगता है, दिल दिवाना लगता है,
किसिको देखते ही गाना बजाने लगता है
फूल, बातों और इरादों का ताना बाना सजता है
ये प्यार कुछ अलग रंग बिखेर जाता है, 
खूद से आगे बढ़कर किया ये पहला प्यार ज़हन में बस जाता है

फिर मौहब्बत जवां होती है,
कभी बेहद खुदगर्ज़, कभी बेवफा होता है,
कभी बेबाक और तो कभी बेपरवाह होती है, 
कहीं नए रिश्ते जोड़ता है प्यार,
तो कहीं कई अरमान तोड़ता है प्यार,

खुशकिस्मतों को एक बार फिर बचपन की रौनक मिलती है
अपने से ज्यादा, उनकी मुस्कुराहट से हमारी हंसी खिलती हैं, 
लेकिन ये प्यार खुद से उपर उठने की सीख दे जाता है, 
निस्वार्थ होने का वादा कराता है, 

फिर उम्र धीरे धीरे रवाँ होती है,
शफ़क़ की लाली जिन्दगी पर छाती है
ये तो प्यार के माईने ही बदल जाती है
रिश्तों से उपर फिर उठता है प्यार
अब रोम रोम में बसता है प्यार
अब हर चीज़ में वाबस्ता है प्यार






Wednesday, July 1, 2020

कौन है ये?


कभी कच्चे कभी पक्के रास्तों पर चली, 
एक दो ठोकर लगी, एक आद बार दिल भी टूटा, 
दिन में चमकते सूरज से लड़ी, 
रात में चांद की ठंडक में बही, 
कभी उधड़ी सी कमीज से आती गुदगुदाती हवा सी, 
तो कभी साइकल पर सवार, तीखी बारिश की बूंदों सी, 
इंद्रधनुष के रंगों में कई बार इसे खोजा मैंने, 
कभी पुरानी तस्वीरों में छुपी मिली, 
तो कभी डायरी के पन्नों में सूखे पत्तों सी, 
न जाने कहां गुम हो जाती है, गुमसुम सी कहीं रुक जाती है, 
कई बार है मैंने टोका इसे, गुस्सा होने से भी रोका इसे, 
सहेली है मेरी मान भी जाती है, 
फिर इतरा कर, मुस्कुराने की ठान भी जाती है।

पर बदमाशी इसकी खत्म नहीं होती, 
अब क्या कहूं, कैसे समझाऊं
मन और दिमाग के पहियों पर सवार 
इस सवारी को कहां कहां ले जाऊं, 
फूंलों की खुशबू में खुश होती है, 
पेड़ों की छाँव में खिल उठती है, 
मिट्टी से बनी है, मिट्टी में मिलेगी, 
चुनौतियों के भंवर में फिर खुद को खोज लेगी, 
ढींठ भी है ये, अड़ियल भी, जो ठान लेगी वो करके रहेगी, 
किस सोच में हैं, पहचान रहे हैं कौन है ये, 
मेरी तो ऐसी ही है, अगले मोड़ फिर मिलेगी, 
इसी का नाम है ज़िन्दगी!


Sunday, May 31, 2020

धुंधली सी ज़िन्दगी


ज़िन्दगी यूं आखों के आगे से गुजर रही है,
ये किस तरह की हवा चल रही है?
रास्ते दिखते तो हैं मगर धुंधले से हैं, 
बातों में कभी कभी जोश तो है,  
मगर होश अक्सर बेहोश है, 

मुठ्ठी से फिसलती रेत सा समय, 
तकरीरों में उलझता जा रहा है, 
खाली पड़े सपनों से झगड़ता जा रहा है। 
ज़िन्दगी यूं आखों के आगे से गुज़र रही है, 
ये किस तरह की हवा चल रही है। 

शांती है बाहर, मगर मन अशांत सा है, 
डर नहीं है, इसमें कुछ वीरान सा है, 
सर जमीन पर जैसे एक तूफान सा है, 
जिससे बच्चा बच्चा परेशान सा है, 
कुछ इस तरह की हवा चल रही है, 
ज़िन्दगी नम आखों में गुज़र रही है। 

मौसम बदल रहे हैं, 
हल्की भीनी सर्दी ने, गर्मी को कुछ जगह दी, 
फिर बहार भी आ कर चली गई, 
सूरज ने भी तेज दिखाया, 
समुद्र का सुकूत भी थम न पाया
हम घर में यूं ही बंद रहे, 
बाहर एक तूफान आया, 
धुंधली सी ये ज़िन्दगी, आखों के आगे से गुज़र रही है, 
न जाने ये कैसी हवा चल रही है।   

तूफान, बाड़, भूकंप, बिमारी, भुकमरी,
न जाने ये समय और क्या क्या दिखाएगा
कितने गुनाहों की सज़ा साथ दिलाएगा 
धरती टूट रही है, आशाएं छूट रही हैं, 
इंसान का इंसान पर कच्चा सा एक भरोसा है, 
बस इसी के सहारे उम्मीदों को रोका है। 
वरना तो, हवा कुछ ऐसी चल रही है, 
ज़िन्दगी आखों के आगे से बस गुज़र रही है।   



Monday, April 20, 2020

घर


कितनी अजीब जगह है ये घर, 

ये है तो हम नहीं भटकते दर ब दर
कभी पिता, कभी पति का होता है ये मकान,
हम खुद ही फूंकते हैं इसमें जान, 
रंग रोगन से इसे निखारते हैं, 
सजावट से इसे सवारते हैं,
प्यार से सींच कर बनाते हैं ये जहान, 

कितनी अजीब जगह है ये घर 

इसकी आगोश में महफूज़ हैं हम, 
तेज धूप, बारिश और आंधी से दूर हैं हम, 
हर मुशकिल में सर पर होती है ये छत, 
हर तीज त्यौहरा पर इसमें लगती है रौनक, 

कितनी अजीब जगह है ये घर

मेरा नहीं फिर भी अपना सा लगता है, 
कभी कभी तो ये सब सपना सा लगता है, 
जानती हूं, लड़कियों के खुद के घर नहीं हुआ करते,
बंधनो में बंधे ये दरों दिवार इनके सगे नहीं हुआ करते,  

कौन सा घर किसका है, ये पहचानती हूं, 
अपने हक की सीमा को जानती हूं, 
कहने को सब कुछ इसमें मेरा है, 
फिर भी मेरा कुछ नहीं, 
सच है ये की लड़की का खुद का कोई घर नहीं.

एक घर में पैदा हुए, लेकिन वहां मरने का हक नहीं, 
दूसरे से मर कर निकलेंगे पर वहां जीने के हक में है कमी, 
तभी तो कभी कभी 
ये घर नहीं, जगह लगती है, 
अजीब सी यहां की फिज़ा लगती है, 

कितनी अजीब जगह है ये घर





  



Monday, April 13, 2020

नीला स्कूटर

मेरा नीला स्कूटर!
हर मंजिल तय करेंगे इसपर बैठ, ये सोच लिया था,
पुरी दिल्ली को इसपर नाप कर हमने देख लिया था,
मां अक्सर कहती, क्यों लड़कों की तरह तुम हो उड़ती रहती,
फिर जब उसको बाजार की सैर कराती तो वो भी बड़ा इतराती,

सर्द हवा के झोंके मेरी गर्दन को छूकर निकलते थे,
राहों में खिले फूल मुझसे गुफ्तगू किया करते थे,
सुबह की लाली हो, ढलती शाम या फिर गहराती रात
मेरा नीला स्कूटर हर पल था मेरे साथ,

कभी हमने साथ गिरतों को सड़क से उठाया,
कभी मवालियों को चकमा देकर इसने सलामत घर पहुंचाया,
नाईट शिफ्ट से घर जाते वक्त जब सिगनल पर लगी आंख,
तब भी इसने हमें नहीं गिराया, न कहीं ठुके, न बजे,
बस नीले स्कूटर पर सवार होकर लेते रहे जिंदगी के मजे।

कई बार लबें सफर के बाद, इसी पर बैठ कर किया इंतजार,
बेझिझक और बिनदास होना भी हमें इसके साथ से ही आया,
अजीब सी आजादी थी, बेख़ॉफ था आलम, मुतमईन थे हम,
ये उन दिनों की बात है जब नीले स्कूटर पर सवार फिरा करते थे हम।

फिर एक दिन कुछ यूं हुआ, दूसरे शहर में interview हुआ,
नौकरी बदली, ठिकाना बदला,
नीले स्कूटर को लेकर मां का इरादा बदला, 
बोलीं स्कूटर यहीं रहने दो, तुम जाऔ,
माया नगरी में जाकर अपने पांव जमाऔ,
स्कूटर का क्या है भाई चला लेगा,
वो भी थोड़े दिन नीले स्कूटर का मजा ले लेगा,
भाई ने एक बार नहीं दो दो बार उसे ठोका,
खुद की भी लात तोड़ी, उसको भी दिया दोखा,
बस फिर क्या था, सबकी आखों में खटकने लगा मेरा नीला स्कूटर,
ये गया, वो गया बिक गया मेरा नीला स्कूटर।


Sunday, March 22, 2020

22 मार्च 2020

न भीड़ है, न शोर है
न कहीं भागने की होड़ है
सो गईं हैं सड़कें, हर मंजर ठहर गया है
इस हर पल जागते शहर का हर रास्ता सो गया है

एक दूसरे से बढ़े फासले, की खुद से अब करीब आएं
जिंदगी की इस रेस में जरा सोचें और थोड़ा ठहर जाएं,
बाहर कि दुनिया ढक गई है, ताकी अपनी दुनिया देख पाएं ,
प्रकृति से भी दूर हुए ताकी उसको अब न सताएं,
चिड़ियों की चहचहाट सुनें और कौए की काएं काएं,
उनमुक्त गगन में उनके बेखोफ उड़ने का, बस लुत्फ उठाएं,
हर किसी को है अब अंदर बंद होना, आलीशान बंगाला हो
या झुग्गी का कोई कोना, इस वक्त बस जरूरी है किसमत का साथ होना,

खुद साथ बैठो अपने, थोड़ा परिवार का साथ दो,
जिंदगी के इन लमहों को यूंही न गुजार दो,
राबता करो मन की गहरी गलियों से, नामुमकिन है यहां किसी का खोना,
क्या चाहती है जिंगदी हमसे इसपर भी गौर फरमाएं,
इस भीड़ में भी आज क्यों हैं तन्हा इसकी वजह तो खोज लाएं,

जो इस वक्त घट रहा है, वो कोई मोजिज़ा ही है,
खुद के अंदर की आवाज़, अब कानों तक पहुंच रही है, 
खुद की तलाश, अब नज़र तक पहुंच रही है, 
दूर दूर तक पसरे इस संनाटे में भी सूकून की गुंजाइश है, 
न भीड़ है, न शोर है, एक अजीब सी शांती चारो ओर है।

Wednesday, March 11, 2020

जीवन!

हम क्यों जी रहे हैं,
जीवन जीने की आशा लिए,
शायद कभी हालात सुधरें,
शांती का राज हो, सत्य बलवान हो

क्या ऐसा होगा?
यही प्रशन बार बार आता है,
लड़ाई, खींचतान, युध और मज़हब के नाम से
अब दिल घबराता है।

हम क्यों जी रहे हैं?
शांती की खोज में, या कामनाओं के लिए,
इच्छाओं की ओड़ में या धरती के लिए, 
कुछ कह नहीं सकते, हर पल एक बैचैनी है,
इस रात की सियाही गहरी है,
कैसा अज्ञात सा जीवन है, फिर भी जी रहे हैं।



Saturday, February 29, 2020

मन जार जार रोता है


ये बहार तार तार कर जाती है,
इसके रंग जार जार रुलाते हैं,
कैसे माहौल में आया है वसंत
हर गली पर चढ़ा है मातम का रंग.
फूलों की खुशबू , नफरत के धुएं में गुम हुई,
इंसानियत की रुह एक बार फिर धूं धूं कर कर जल गई,


मिटी नहीं हैं अब तक जहन से पिछले दंगों की तस्वीरें,
इन नए जखमों के लिए जगह कहां बनाएं,
किससे करें सवाल, किसको कसूरवार ठहराएं,
उनहें, जो धर्म के नशे में इसनिंयत का नाश कर आए,
या उनहें जो सत्ता के नशे में पहले से ही सब दाव पर लगा आए। 

क्यों नहीं समझता है इंसान,
धर्मगुरुओं की भी अब क्यों बंद है जुबान,
धर्म की जगह क्यों नहीं होता प्यार का गुणगान,
सब चुप चाप तमाशा देख रहे हैं,
हैवान अब खुल्ले आम घूम रहे हैं।


ये मारने मरने की कैसी है हवस,
किस बात पर इतना गुस्सा है,
भगवान, अल्लाह, इसा ने कब ऐसा सबक सिखाया है,
इंसान से बड़ा है धर्म ऐसा किसने बताया है,
सहमी है रुह, रो रहा है मन, 
देखो कैसे महौल में इस साल आया है वसंत।




Tuesday, January 7, 2020

राह


घर से निकले थे सोच कर एक ही बात, 
चलेंगे उस राह पर जो गिरा देगी समाज की हर दीवार, 
न रहेगा मजहब, न अंधविश्वास और न बचेगा गुब्बार, 

तुम होंसला न हारना, क्यों कि दीवारें बहुत हैं,
तुम रास्ता न छोड़ना, क्यों कि राह कठिन है, 
लहु लुहान होगा मन, बवंडरों की चपेट में आएगा तन, 
लेकिन अब तो, वो जहान हमें बनाना है, जहां इंसानों को बसाना है
इनसानियत के आड़े आती हर दिवार को गिराना है।

मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारा या चर्च, ये तो बस बहाने हैं
आदमी को भटकाने के, तरीके ये पुराने हैं,  
पीपल बन तुमको इन इमारतों पर छाना है, 
भुकंप हो तुमहें इन पथरों को हिलाना है, 
बेगुनाहों के खून से सींची जा रही है धरती, 
तुम्हे इससे ये बोझ हटाना है। 
बहुत दिन चुप रहे, अब हर चीख का मोल चुकाना है। 
ज़िन्दगी, प्यार और इंसानियत का जहां मोल हो, 
उस राह चल के दिखाना है। 
उस राह चल के दिखाना है।