जमीन, घर, मकान,
कैसे कैसे ख्वाब देखता है इनसान,
कभी खुली आंखों से और कभी मन में है संजोता,
लड़ते, मरते, खुद को छलते, चाहतों की लिस्ट बढ़ाती जाती है,
लेकिन
क्या लेकर आए थे, कुछ नहीं, फिर भी हर चीज़ अपनी बनाना चाहते हैं हम,
कभी अधिकार, कभी हक, कभी इच्छा से, संसार का हर सुख है चाहते हम
क्या लेकर जाएंगे? जानते हैं, कि साथ कुछ नहीं जाएगा,
फिर भी इतना कुछ क्यों बनाना चाहते हैं हम,
किसके लिए ये व्यवस्था है करनी,
कौन बसेगा इसमें, यादें भी तो इंसानों के साथ ही खत्म होती जाती हैं,
हर नई पीढ़ी अपना नया आज लिखती है,
ये कैसा लोभ, क्या प्रयास है, हर चीज़ से ये कैसा जुड़ाव है?
जहां का अन्न लिखा है, वहीं तेरा ठिकाना है,
उसी धरती को अपनी कर्म भूमी बनाना है,
दिल में करुणा लिए सिर्फ इंसानियत का धर्म निभाना है,
जानता है ना तू ऐ बंदे, अगले पल का न कोई ठिकाना है.
बस मिट्टी में मिल जाना है, बस मिट्टि में मिल जाना है.