ये बहार तार तार कर जाती है,
इसके रंग जार जार रुलाते हैं,
कैसे माहौल में आया है वसंत
हर गली पर चढ़ा है मातम का रंग.
फूलों की खुशबू , नफरत के धुएं में गुम हुई,
इंसानियत की रुह एक बार फिर धूं धूं कर कर जल गई,
मिटी नहीं हैं अब तक जहन से पिछले दंगों की तस्वीरें,
इन नए जखमों के लिए जगह कहां बनाएं,
किससे करें सवाल, किसको कसूरवार ठहराएं,
उनहें, जो धर्म के नशे में इसनिंयत का नाश कर आए,
या उनहें जो सत्ता के नशे में पहले से ही सब दाव पर लगा आए।
क्यों नहीं समझता है इंसान,
धर्मगुरुओं की भी अब क्यों बंद है जुबान,
धर्म की जगह क्यों नहीं होता प्यार का गुणगान,
सब चुप चाप तमाशा देख रहे हैं,
हैवान अब खुल्ले आम घूम रहे हैं।
ये मारने मरने की कैसी है हवस,
किस बात पर इतना गुस्सा है,
भगवान, अल्लाह, इसा ने कब ऐसा सबक सिखाया है,
इंसान से बड़ा है धर्म ऐसा किसने बताया है,
सहमी है रुह, रो रहा है मन,
देखो कैसे महौल में इस साल आया है वसंत।
Beautiful Shweta. Love the poem. Very appropriate for what happened in Delhi
ReplyDeleteThank you so much massi
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