आज भी जहन में नापाक़ सी वो रात,
रुह को झिंझोड़ती , बेखौफ सी वो रात,
उस रात के तस्वुर से कांप उठता है मन,
उस रात जो हुआ, उस सोच से भी डरता है मन।
कैसा संनाटा था, समझा था जिसे दोस्त,
दोस्ती, उसका मुखौटा था,
न उम्र का लिहाज किया, न रिश्ते की रखी लाज,
देश के रक्षक बने फिरते हैं जो,
उनहोंने घर में अपनी ही इज्ज़त पर किया वार।
दिमाग सुन हो गया, आवाज़ गुम हो गई,
मेरे बाजुओं को जकड़े उन हाथों को झटकने की ताकत शीण हो गई,
कुछ पलों में मंजर बदल गया, कमरे में अंधेरा छा गया,
अपने जिस्म पर एक भारी लाश का बोझ सा पाया,
दोस्ती, इज्ज़त और बड़े भाई जैसे प्यार की लाश।
मगर एक इत्तेफाक़ था, हाथ में मेरे रामायण की वो कहानी थी,
जिसमें सीता ने खुद का सम्मान बचाने की ठानी थी।
ये महज इत्तेफाक़ था, महज इत्तेफाक़, उस किताब से मैने उसे धक्का दिया,
पैरों में जान आई, दिमाग ने साथ दिया,
वो फिर से मुझपर झपटा!
मेरे सांसों की आवाज़ मेरे कानों तक आ रही थी,
मैं जिंदा थी, डरी हुई थी, मगर मैं जिंदा थी,
पूरे जोर के साथ मैने उसे धकेला, अपना रास्ता बनाया,
खुद को बचाया, उन नापाक इरादों से पाक निकल,
अपने कमरे की चार दिवारी में महफूज़ हुई।
डर से ज्यादा अब गुस्सा था, गुस्से से ज्यादा रिश्तों की चिन्ता,
दिल की धड़कन रात भर तेज रही,
सुबह की किरणें आंखों में आंसू का सैलाब लाई,
एक बार फिर यूं लगा की पैरों से जान निकल गई,
लेकिन ये बात बतानी जरूरी थी बिना आसुंओं के ये कहानी कहनी जरूरी थी।
वो बात एक रात की
आज भी आग बबूला कर जाती है,
वो बात एक रात की
आज भी औरत होने की बेबसी का एहसास दिलाती है
वो बात एक रात की
आज भी लड़की अपने घर में भी सुरक्षित नहीं ये याद दिलाती है
वो बात एक रात की
हम क्यों सालों चुप रह जाती हैं, ये बताती है।