एक दो ठोकर लगी, एक आद बार दिल भी टूटा,
दिन में चमकते सूरज से लड़ी,
रात में चांद की ठंडक में बही,
कभी उधड़ी सी कमीज से आती गुदगुदाती हवा सी,
तो कभी साइकल पर सवार, तीखी बारिश की बूंदों सी,
इंद्रधनुष के रंगों में कई बार इसे खोजा मैंने,
कभी पुरानी तस्वीरों में छुपी मिली,
तो कभी डायरी के पन्नों में सूखे पत्तों सी,
न जाने कहां गुम हो जाती है, गुमसुम सी कहीं रुक जाती है,
कई बार है मैंने टोका इसे, गुस्सा होने से भी रोका इसे,
सहेली है मेरी मान भी जाती है,
फिर इतरा कर, मुस्कुराने की ठान भी जाती है।
पर बदमाशी इसकी खत्म नहीं होती,
अब क्या कहूं, कैसे समझाऊं
मन और दिमाग के पहियों पर सवार
इस सवारी को कहां कहां ले जाऊं,
फूंलों की खुशबू में खुश होती है,
पेड़ों की छाँव में खिल उठती है,
मिट्टी से बनी है, मिट्टी में मिलेगी,
चुनौतियों के भंवर में फिर खुद को खोज लेगी,
ढींठ भी है ये, अड़ियल भी, जो ठान लेगी वो करके रहेगी,
किस सोच में हैं, पहचान रहे हैं कौन है ये,
मेरी तो ऐसी ही है, अगले मोड़ फिर मिलेगी,
इसी का नाम है ज़िन्दगी!
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