Saturday, July 27, 2019

लकीरें

पेशानी पर बार बार आती लकीरों के लिए आज फिर किसी ने टोका,
उन मुख़्तसर की यादों को, बीच गली में रोका, 
अनजान हैं वो जानते नहीं, जिंदगी के इस रस को पहचानते नहीं, 
चिंता नहीं है कोई, 
हम तो गुथ्थियां सुलझा रहे हैं, 
तुम्हारे सवालों से वाबस्ता जवाब तलाश रहे हैं, 

पेशानी पर लकीरें, यूंही नहीं बनती, 
खुद से तक़रीरें यूंही नहीं चलती, 
कभी तुमको, कभी खुद को याद दिलाते हैं हम, 
टेक बाए टेक अपनी फिल्म बनाते हैं हम, 
फिर कहानी इक मोड़ पर उलझ जाती है, 
माथे की लकीरें फिर साफ नजर आती हैं। 

दुनिया

छिप कर देखा किए थे, खिड़की से,
बाहर की वो दुनिया थी.
बुरे थे लोग, नहीं थे दोस्त बाहर की वो दुनिया थी,
चंचल था मन, कोमल थे सपने,
और बाहर की वो दुनिया थी,
कांच के घर, मजहब की दिवार, पथर के दिल
और बाहर की वो दुनिया थी।
खिड़की कहीं वो छूट गई,
चंचलता अब सगुण हुई,
दुनिया के रंग में यूं जा मिले, वक्त की न हमें खबर रही,
सपनों की नगरी में, सपने भी खो गए,
अजब हैं लोग, नहीं बने दोस्त,
बाहर की ये दुनिया है। 

साया

रात का धूंआ था वो,
भूला सा इक लमहा था वो,
राह में था गिर गया,
धूल में था जा मिला,
कल मिला वो ख्वाब में,
सो रहा था जब जग सारा,
आखों में था भर आया,
कुछ कतरे आंसू के भी साथ लाया,
भूल गई थी मैं उसे, जिसे कभी था इतना चाहा,
कल मिला जो ख्वाब में , वो था मेरा ही साया।