पेशानी पर बार बार आती लकीरों के लिए आज फिर किसी ने टोका,
उन मुख़्तसर की यादों को, बीच गली में रोका,
अनजान हैं वो जानते नहीं, जिंदगी के इस रस को पहचानते नहीं,
चिंता नहीं है कोई,
हम तो गुथ्थियां सुलझा रहे हैं,
तुम्हारे सवालों से वाबस्ता जवाब तलाश रहे हैं,
पेशानी पर लकीरें, यूंही नहीं बनती,
खुद से तक़रीरें यूंही नहीं चलती,
कभी तुमको, कभी खुद को याद दिलाते हैं हम,
टेक बाए टेक अपनी फिल्म बनाते हैं हम,
फिर कहानी इक मोड़ पर उलझ जाती है,
माथे की लकीरें फिर साफ नजर आती हैं।