घर से निकले थे सोच कर एक ही बात,
चलेंगे उस राह पर जो गिरा देगी समाज की हर दीवार,
न रहेगा मजहब, न अंधविश्वास और न बचेगा गुब्बार,
तुम होंसला न हारना, क्यों कि दीवारें बहुत हैं,
तुम रास्ता न छोड़ना, क्यों कि राह कठिन है,
लहु लुहान होगा मन, बवंडरों की चपेट में आएगा तन,
लेकिन अब तो, वो जहान हमें बनाना है, जहां इंसानों को बसाना है
इनसानियत के आड़े आती हर दिवार को गिराना है।
मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारा या चर्च, ये तो बस बहाने हैं
आदमी को भटकाने के, तरीके ये पुराने हैं,
पीपल बन तुमको इन इमारतों पर छाना है,
भुकंप हो तुमहें इन पथरों को हिलाना है,
बेगुनाहों के खून से सींची जा रही है धरती,
तुम्हे इससे ये बोझ हटाना है।
बहुत दिन चुप रहे, अब हर चीख का मोल चुकाना है।
ज़िन्दगी, प्यार और इंसानियत का जहां मोल हो,
उस राह चल के दिखाना है।
उस राह चल के दिखाना है।
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