कितनी अजीब जगह है ये घर,
ये है तो हम नहीं भटकते दर ब दर
कभी पिता, कभी पति का होता है ये मकान,
हम खुद ही फूंकते हैं इसमें जान,
रंग रोगन से इसे निखारते हैं,
सजावट से इसे सवारते हैं,
प्यार से सींच कर बनाते हैं ये जहान,
कितनी अजीब जगह है ये घर
इसकी आगोश में महफूज़ हैं हम,
तेज धूप, बारिश और आंधी से दूर हैं हम,
हर मुशकिल में सर पर होती है ये छत,
हर तीज त्यौहरा पर इसमें लगती है रौनक,
कितनी अजीब जगह है ये घर
मेरा नहीं फिर भी अपना सा लगता है,
कभी कभी तो ये सब सपना सा लगता है,
जानती हूं, लड़कियों के खुद के घर नहीं हुआ करते,
बंधनो में बंधे ये दरों दिवार इनके सगे नहीं हुआ करते,
कौन सा घर किसका है, ये पहचानती हूं,
अपने हक की सीमा को जानती हूं,
कहने को सब कुछ इसमें मेरा है,
फिर भी मेरा कुछ नहीं,
सच है ये की लड़की का खुद का कोई घर नहीं.
एक घर में पैदा हुए, लेकिन वहां मरने का हक नहीं,
दूसरे से मर कर निकलेंगे पर वहां जीने के हक में है कमी,
तभी तो कभी कभी
ये घर नहीं, जगह लगती है,
अजीब सी यहां की फिज़ा लगती है,
कितनी अजीब जगह है ये घर
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