Thursday, May 27, 2021

पहचान!

एक सननाटा सा पसरा है
हर तरफ एक बेबसी सी है
चले थे हम अपनी पहचान बनाने 
खड़ें हैं आज एक नए जहां में

ये क्या है जो घट रहा है 
इंसान का वजूद नमुकमल लग रहा है
बिखरे बिखरे ख्वाब हैं और बिखरे बिखरे जज़बे
हर तरफ अफरा तफरी सी है
एक बेचैनी सी है

कोई ठीक नहीं, कोई गलत भी नहीं 
कोई अलग नहीं, कोई साथ भी नहीं
बेरुखी सी है वक्त में
खुश रहने की बात भी बेमानी सी है

कहां खड़े हैं कुछ पता नहीं
कहां को जाएंगे जानते नहीं 
भटकी सी रूह
भटकी सी पहचान
भटका सा मन

खुद के अस्तित्व की खोज में 
खुद ही से लड़ रहे हैं हर रोज़ में
किस पहचान को बनाए रखने की कोशिश में हैं
किस जहान को सजाए रखने की कोशिश में हैं
क्या रिश्ते समेटने से पहचान बनी रहती है?
या नाम जोड़े रखने से पहचान बनी रहती है?

नाजुक सी डोर है ये जीवन, इसे जीने की तू कोशिश कर 
जो घटना है वो घटेगा, ये समझने की तू कोशिश कर
किस पहचान की चाह में है मन 
मिलना तो मिट्टी में है हर कण ......... 






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