Saturday, July 27, 2019

दुनिया

छिप कर देखा किए थे, खिड़की से,
बाहर की वो दुनिया थी.
बुरे थे लोग, नहीं थे दोस्त बाहर की वो दुनिया थी,
चंचल था मन, कोमल थे सपने,
और बाहर की वो दुनिया थी,
कांच के घर, मजहब की दिवार, पथर के दिल
और बाहर की वो दुनिया थी।
खिड़की कहीं वो छूट गई,
चंचलता अब सगुण हुई,
दुनिया के रंग में यूं जा मिले, वक्त की न हमें खबर रही,
सपनों की नगरी में, सपने भी खो गए,
अजब हैं लोग, नहीं बने दोस्त,
बाहर की ये दुनिया है। 

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